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नहीं रहे पंजाबी साहित्य के ‘बाबा बोहड़’, पद्मश्री सुप्रिद्ध कवि सुरजीत पातर का निधन

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खबर खास, चंडीगढ़ :
पंजाबी साहित्य के ‘बाबा बोहड़’ के तौर पर जाने जाते पंजाबी के सुप्रसिद्ध कवि और पद्मश्री से नवाजे गए सुरजीत पातर का दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। वह 79 साल के थे। उनका निधन उनके लुधियाना स्थित उनके घर पर हुआ। पातर के जाने से पंजाबी साहित्य को बहुत बड़ा नुकसान हुआ है और उनके चाहने वालों में शोक की लहर है।
उनके परिवार के मुताबिक वह बीती रात को रोजाना की तरह कमरे में सोने के लिए चले गए। जब वह सुबह अपने कमरे से बाहर नही आए तो उनके परिवारिक सदस्य उन्हें कमरे में देखने पहुंचे। वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा कि उनकी सांस नहीं चल रही थी। सुरजीत पातर पंजाबी साहित्य अकादमी के प्रधान पद की भी जिम्मेदारी निभा चुके है। पातर को पद्मश्री पुरस्कार समेत कई अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है।
जालंधर के पातर कलां गांव में जन्में सुरजीत पातर किसी परिचय के मोहताज नहीं थे। उन्होंने बतौर पंजाबी साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के तौर पर भी काम किया। पंजाब विश्वविद्यालय, पटियाला से मास्टर डिग्री पूरी करने के बाद, पातर ने गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से पीएचडी की। इसके बाद उन्होंने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में पंजाबी के प्रोफेसर के रूप में योगदान दिया और वहीं से सेवानिवृत्त हुए।
उनकी कई प्रसिद्ध कविताएं लोगों के मानस पटल पर आज भी अंकित हैं। इनमें हवा में लिखे अक्षर, शब्दों का मंदिर, पतझड़ का बाजेब, सुर जमीन, बृख अर्ज करे, अंधेरे में सुलगड़ी स्वर्णमाला शामिल हैं। वह पंजाब के प्रसिद्ध लेखक, कवि और शायर थे।
उन्हें 1979 में पंजाब साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1993 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1999 में पंचानंद पुरस्कार, 2007 में आनंद काव्य सम्मान, 2009 में सरस्वती सम्मान और गंगाधर राष्ट्रीय कविता पुरस्कार से सम्मानित किया गया है।केंद्र सरकार 2012 में उनको पद्मश्री से नवाज चुकी थी। पातर ने किसान आंदोलन में किसानों के समर्थन में पद्मश्री लौटाने का ऐलान तक कर दिया था।

उनका इस दुनिया से अचानक चले जाना साहित्य जगत के लिए बहुत बड़ी क्षति है। उन्होंने अपनी कविताओं से पंजाबी भाषा को एक नया आयाम दिया। उनकी रचनाएं मानवीय संवेदनाओं, प्रकृति प्रेम और सामाजिक मुद्दो को बखूबी बयां करती थीं। उनकी कविताओं में पंजाब की मिट्‌टी की सौंधी खुशबू और यहां के लोगों के जीवन की सच्चाई झलकती थी। उनकी रचनाओं का कई दूसरी भाषाओं में अनुवाद हुआ और उसे दुनियाभर में सराहा भी गया। उनके जाने से पंजाबी साहित्य जगत में एक ऐसा शून्य पैदा हो गया है, जिसकी भरपाई शायद ही हो पाए।